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Monday, August 17, 2015

ज्ञान गंगा : चरवाहे से मिला राजा को ज्ञान

पुराणों में महाराज ध्रुवसंधि की एक कथा आती है। ध्रुवसंधि बड़े प्रतापी सम्राट थे। उन्होंने अनेक युद्ध जीते थे। एक बार वे आखेट हेतु वन में गए। वहां उन्होंने अनेक जानवरों का शिकार किया। हालांकि ऐसा करने पर भी उन्हें कोई विशेष प्रसन्न्ता नहीं मिली, बल्कि उनका मन थोड़ा खिन्न् ही हुआ।
इसी खिन्न्ता में घूमते हुए वे वन के दूसरे छोर तक पहुंच गए। वहां पर महर्षि सत्यकाम का आश्रम था। सत्यकाम परम तपस्वी, तितिक्षु व परमज्ञानी थे। सम्राट ध्रुवसंधि ने उनके समीप पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। महर्षि ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें अपने पास बिठाया। दोनों बातचीत करने लगे।
बातों-बातों में ध्रुवसंधि ने महर्षि सत्यकाम से कहा - 'हे ऋषिश्रेष्ठ, स्वयं के पुरुषार्थ और आप जैसे महर्षियों के आशीर्वाद से इस संपूर्ण भूमंडल पर मेरा अकंटक राज्य है। इस धरा पर मुझे सभी सुख प्राप्त हैं। मैं यह जानना चाहता हूं कि शरीर छोड़ने के बाद मेरी क्या दशा होगी?"
यह सुनकर महर्षि थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले - 'राजन, शरीर छोड़ने के बाद आपको घोर नरक में जाना होगा।" यह सुनकर ध्रुवसंधि कांप उठे। महल पहुंचकर उन्हें सारी रात नींद नहीं आई। प्रात: उठते ही वह पुन: महर्षि सत्यकाम के पास पहुंचे और बोले - 'महर्षि, मैं अपने समस्त कोष व राज्य को दान में दे दूंगा, पर मुझे मोक्ष तो मिलना ही चाहिए।"
यह सुनकर महर्षि हंसे और बोले - 'अच्छा तो आप मोक्ष खरीदना चाहते हैं। चलिए यही ठीक है, आपके राज्य के समीपवर्ती गांव में एक चरवाहा तोषल रहता है। वह भगवान का सच्चा भक्त व अद्भुत योगी है। पहले आप उससे भक्ति व योग का पुण्य खरीद लीजिए, फिर मेरे पास आइएगा।"
ध्रुवसंधि तुरंत तोषल के पास पहुंचे और भक्ति व योग खरीदने की बात कही। तोषल उनकी बात सुनकर विस्मित रह गया और बोला - 'महाराज, भक्ति का पुण्य तो संवेदना है और योग का फल सुख-दु:ख में समता का भाव है। इसे मैं किस तरह बेच सकता हूं, आप ही बताएं। इसके लिए तो आपको अपने मोह एवं अहंकार का त्याग करना पड़ेगा।" तोषल की इन बातों को सुन सम्राट ध्रुवसंधि को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह महर्षि के पास वापस पहुंचे और उनसे क्षमा मांगकर तप एवं भक्ति में लग गए।
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