"न तस्य रोगो न जरान मृत्युः प्राप्तस्ययोगाग्रिमयं शरीरम् ।।उपनिषद्।।"
योग करने वाला व्यक्ति योग की महिमा व भोग के क्षणिक सुखाकर्षण को ठीक-ठीक यथार्थ रूप में अनुभव करता है और अपा अभ्युदय व निःक्षेयस सिद्धि करता हुआ समष्टि के प्रति अपने कर्तव्य को कृतज्ञता पूर्वक निभाता है। व्यक्ति व समष्टि में संतुलन बनाए रखता है। योग करने वाला आध्यात्मिक व्यक्ति अपने ही एकत्व का दर्षन पूरे ब्रह्माण्ड में करता है।वह वसुधैवकुटुम्बकम्, विष्वबन्धुत्व एवं सृष्टि के सह-अस्तित्व के सिद्धान्त के प्रतिपूर्ण निष्ठा रखता हुआ, सबके सुख, सबकी समृद्धि एवं सबके सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा हेतु प्रयत्न करता है। अन्यायपूर्ण युद्ध व हिंसा से वह सर्वथा दूर रहता है। योग करने वाला व्यक्ति सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक जितनी भी विभिन्न संस्कृतियाँ, सभ्यताएं, परम्पराएं, मत, पंथ, सम्प्रदाय व मजहब है, उन सबका सम्मान करता है। सब में एक ही आत्मा व परमात्मा का दर्षन करता है।
योगी सृष्टि के शाष्वत सत्यों तथा नियामों या यूनिवर्सल लॉ सृष्टि के सनातन धर्मया सनातन को अनुभव करता है तथा उसके अनुरूप् जीता है। मजहब के नाम पर खून खराबा के बारे में यह सोच भी नहीं सकता। योग करने वाला व्यक्ति सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, वैष्विक सुख व सम्बन्धों के संदर्भ में अविवेकपूर्ण आचरण नहीं करता है। योग के मार्ग पर चलकर ही व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र व विष्व सुख, समृद्धि, सुरक्षा व शान्तिपूर्वक जी सकता है। योग ही विष्व शान्ति का एक मात्र मार्ग है।
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